### **1. गाय की रक्षा या धर्म का व्यवसाय?**
भारत में गाय को पवित्र मानने की परंपरा को लेकर जो राजनीतिक और सामाजिक चीत्कार होता है, वह अक्सर धर्म के नाम पर चलने वाले व्यवसाय का ही रूप ले लेता है। हम गाय की रक्षा करने के लिए तैयार हैं, लेकिन बैल, बकरी या मछलियों की बात करें, तो धर्मगुरुओं के लिए ये मुद्दे "अप्रासंगिक" हो जाते हैं। वास्तव में, भारत आज **विश्व का सबसे बड़ा बीफ निर्यातक** देश है। यह विरोधाभास स्पष्ट है—जबरदस्ती गाय बचाने की चीखें भले ही बुलंद हों, लेकिन गायों की हत्या का व्यापार खुले आम चलता रहता है।
### **2. धर्मगुरुओं की "धार्मिक" व्यवस्था**
आज के स्वयं को "धर्मगुरु" कहने वाले लोगों का व्यवहार अधर्म की ओर ले जाता है। इनकी राजनीतिक और आर्थिक हितों को छुपाने के लिए "गाय रक्षा" एक मजबूत टूल बन गई है। इनका तर्क सरल है: *"हमें धन दो, हम धर्म का काम करेंगे।"* ये गुरु लोगों को "दयालु" या "धनवान" के रूप में दिखाते हैं, लेकिन उनकी वास्तविकता बिल्कुल अलग है। इनका "रिसर्च" केवल इतना है कि *"गाय का गोश्त खाने वाले मुस्लिम हैं, कांग्रेसी नेता हैं, या फिर यह भैंस का गोश्त है..."*। यह कूटनीति न सिर्फ़ हास्यास्पद है, बल्कि समाज को बांटने में भी काम आती है।
भारत के ये मजहबी कीड़े लोगों को केवल यही समझाने में व्यस्त हैं कि हमें गायों की रक्षा करनी चाहिए। बस, इनका बिजनेस केवल यही 1 लाइन पर चलता है। लेकिन कैसे? उसका इनके पास कोई रिसर्च नहीं है। और इनको पूछो कि कैसे और तुम्हारा क्या रिसर्च है? तो इनका रिसर्च यही है कि हमें धन और संपत्ति दो, हम करके दिखाएंगे। बस, दयालु, धनवीर, पैसेवाला, कोई भी दिखा नहीं कि ये अपने बिजनेस की टैग लाइन बोलने लगते हैं।
और ये लोगों को समझाते हैं कि केवल गाय को बचाना है। बैल को नहीं। न बकरी को, न किसी को। न मछली को, नदी या किसी को। इनका धर्म केवल गाय पर ही चलता है।
भारत अभी पूरे विश्व में सबसे ज्यादा बीफ एक्सपोर्ट करने वाला देश है। और ये सब कुछ सबके सामने चल रहा है। लेकिन कायर मानसिकता वाले हिंदू इसके बचाव में कुछ कुतर्क ढूंढ ही लेते हैं। जैसे कि ये तो मुस्लिम करते हैं, ये कांग्रेस के नेता करते हैं। कांग्रेस का व्यक्ति कहेगा कि ये तो बीजेपी के नेता करते हैं। अगर कोई अति बुद्धिमान होगा तो कहेगा कि ये तो भैंस का है, गाय का नहीं है।
भारत में ज्यादातर क्या होता है। लोग गाय को पालते हैं। गाय ने अगर मादा दिया तो रखते हैं, नर दिया तो उसे वैसे ही छोड़ देते हैं या किसी एनजीओ को दे देते हैं या कसाई को।
जिसने एनजीओ को दे दिया तो समझो सबसे महान बन गया और वो अपनी इस महानता को 10 लोगों को जाकर कहेगा, देखो देखो, मैंने तो कसाई को नहीं दिया, मैंने तो एनजीओ को दिया। 3 साल बाद पता चलेगा कि एनजीओ स्कैम था और वो वहां से अंत में कसाई को ही बेच रहा था।
अब ये एनजीओ चलाने वाले लोग हैं कौन?
या तो वे ऐसे अधर्मी बाबाओं का टोला है, उन्हें केवल लोगों के रुपये से अपनी ऐयाशी या कटनी है और धर्म की टैग लाइन को चलाकर महान भी बनना है।
दूसरे वे लोग हैं जो कोई जॉब फाइंड नहीं कर पा रहे हैं और स्वभाव से ही चुड़ैलिया टाइप के हैं। इनकी अकल नॉर्मल गधे से भी कम है, लेकिन इन्हें बनना है समाज सुधारक, नेता या फिर कोई महा उदारवादी व्यक्ति।
बाकी के इस्लाम के जेहादी से मिले हुए सिंडिकेट।
मौका परस्त लोग जो कहीं से भी अपनी रोजी चलाना चाहते हैं।
छोटे वैसे लोग तो मन के सच्चे हैं, लेकिन इनका मेंटल आईक्यू बहुत कम है, तो अंत में वो अपना और गाय का दोनों का ही डायरेक्ट या इनडायरेक्ट नुकसान करवा देते हैं। बस इनमें फर्क यह है कि वो जान-बूझकर नहीं करते।
ओरिजिनल रिसर्च वाले और सच में धर्म के लिए कुछ करने वाले होते हैं, लेकिन वैसे बहुत ही कम लोग हैं और इनके पास संस्थान नहीं है, लोगों का सपोर्ट नहीं है, पॉलिटिकल पावर नहीं है।
एनजीओ सोल्यूशन में प्रॉब्लम क्या है? एनजीओ में प्रॉब्लम यह है कि हम कह रहे हैं प्रॉब्लम क्रिएट करने वाले को कि तुम प्रॉब्लम क्रिएट करते ही रहो, हम बैठे हैं सोल्यूशन देने के लिए।
एनजीओ भी कभी परमानेंट सोल्यूशन फाइंड नहीं करती या करना नहीं चाहती।
आज जो भी दूध की कीमत है, वो 60 रुपये लीटर या 80 रुपये लीटर है, वो कीमत है गायों के कत्ल के बेस पर।
जब गाय अच्छे से दूध देती है तो 50 रुपये लीटर भी चल जाता है, लेकिन अगर गाय को लास्ट 4 साल का कॉस्ट कैलकुलेशन करें तो उसकी कीमत 130 रुपये से 150 रुपये लीटर आएगी।
अब बात करते हैं इतनी सारी गायों के कत्ल खुलेआम हो रहे हैं और कत्ल करने वाले भी सारे लोग खुलेआम दिख रहे हैं और इन गायों का मांस खाने वाले भी खुलेआम ही हैं, तो भारत में धर्म है कहां?
भारत में पिछले 100 साल में धर्म टोटल जो है, उनमें से 1% भी धर्म धरातल पर फॉलो नहीं हो रहा है और 1% लोग भी 1% फॉलो नहीं कर रहे हैं।
भारत में एक बहुत बड़े सिविल वॉर और जेनोसाइड की जरूरत है। इससे प्रकृति और धर्म के लिए बहुत बड़ी जीत होगी।
### **3. एनजीओ: समाधान या समस्या?**
एनजीओ को समस्याओं का समाधान माना जाता है, लेकिन वास्तव में ये अक्सर समस्याओं को और बढ़ाती हैं। इनके पीछे के लोगों को कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
1. **धनार्जन के लिए**: जो लोग धर्म के नाम पर धन कमाने के लिए एनजीओ चलाते हैं।
2. **असफल युवा**: जिन्हें नौकरी नहीं मिली, तो समाज सुधारक बनने की ठेकेदारी ले ली।
3. **जिहादी संगठन**: जो धार्मिक आचारों के नाम पर गुप्त रूप से काम करते हैं।
4. **रोजी-रोटी के लिए**: जो मौकापरस्ती से जीवन चलाने की कोशिश करते हैं।
5. **भ्रमित साधु**: जिनका मानना सच्चा है, लेकिन बुद्धिमत्ता कम है, जिससे उनके काम से समाज को नुकसान होता है।
इनमें से केवल 1% लोग ही वास्तव में पारदर्शी तरीके से काम करते हैं, लेकिन उनके पास राजनीतिक समर्थन या संसाधन नहीं होते।
### **5. समाज की कायरता और आवश्यकता: संघर्ष या सुधार?**
भारतीय समाज की सबसे बड़ी समस्या है—**कायरता**। हम गाय के बचाव के नाम पर लड़ते हैं, लेकिन उसके मांस का सेवन करने वालों को निशाना नहींबनाते हैं, नाही उसके व्यवस्थापकों को। यह कायरता हमें ऐसे तर्क खोजने पर मजबूर करती है जो सच्चाई से मुंह मोड़ते हैं।
क्या इस समस्या का समाधान सिर्फ़ संघर्ष में है? शायद हां। भारत को एक महान बदलाव की जरूरत है—जहां धर्म की व्यवसायिकता के बजाय सच्चाई को महत्व मिले, और प्रकृति की रक्षा के लिए व्यावहारिक नीतियां बनाई जाएं।