Saturday, 28 June 2025

भारत में आतंकवाद, राजनीति और मानसिक गुलामी का त्रिकोण


भारत में लोगों को इस स्तर पर मानसिक रूप से गुलाम बना दिया गया है कि वे अंजाने में ही आतंकवादियों के वकील बन जाते हैं — और उन्हें खुद ही यह समझ में नहीं आता कि वे किस नैरेटिव में उलझ चुके हैं।
देश में हर बार जब कोई आतंकवादी हमला होता है, तब बहस की दिशा आतंकवाद से हटाकर ‘मानवाधिकार’, ‘समाज की जिम्मेदारी’, और ‘जांच की आवश्यकता’ जैसी बातों पर मोड़ दी जाती है, जबकि सच्चाई सबके सामने होती है।

भारत में आतंकवाद ऐसी समस्या नहीं रह गई है जिसे पहचानने या जांचने की ज़रूरत हो। क्योंकि यह सब कुछ पहले से ही सामने होता है — कौन कर रहा है, कहां से कर रहा है, किसका समर्थन प्राप्त है, और कौन उसे शरण दे रहा है — ये सारी बातें खुलेआम सामने होती हैं।
अब तो हालात ऐसे हैं कि आतंकवादी खुद वीडियो बनाकर धमकी देते हैं, फिर हमले करते हैं और बाद में वीडियो बनाकर स्वीकार भी कर लेते हैं।
ऐसे में किसी ‘लंबी जांच’ का दिखावा केवल एक पुराना मानसिक खेल (mind game) बन जाता है, जिसे जनता को भ्रम में रखने के लिए दोहराया जाता है।

असलियत यह है कि जब कोई हमला करता है, तो उसे सिर्फ उतनी ही जानकारी दी जाती है जितनी उसे ज़रूरत है — न कम, न ज़्यादा।
उसका इस्तेमाल एक प्यादे की तरह किया जाता है और फिर उसे पकड़कर दिखावे की कार्रवाई की जाती है कि अब हम उसके आकाओं तक पहुँच जाएंगे। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत की राजनीतिक और कूटनीतिक क्षमता अभी उस स्तर तक नहीं पहुँची है कि वह इन आकाओं को सच में पकड़ सके।

भारत ने मसूद अजहर जैसे कुख्यात आतंकवादी को एक बार पकड़ भी लिया था, लेकिन फिर हाईजैकिंग की धमकी में उसे छोड़ दिया गया।
और उसके बाद वर्षों तक उसने भारत और दुनिया में हजारों निर्दोष हिंदुओं की हत्या करवाई।
आज लोग केवल ‘ऑपरेशन सिंधूर’ में उसके किसी भतीजे के मारे जाने पर ही संतुष्ट हो जा रहे हैं — जबकि शायद खुद मसूद अजहर को नहीं पता होगा कि उसके कितने भतीजे हैं।
पुलवामा जैसे हमलों के असली मास्टरमाइंड आज भी खुले घूम रहे हैं, लेकिन हमारे देश में नारेबाज़ी, संस्था उद्घाटन, और ‘महान नेता’ की भक्ति में ही ऊर्जा खर्च की जा रही है।

अब देखिए 28 जून 2022 को उदयपुर का उदाहरण—कन्हैया लाल साहू की गला रेत कर दिनदहाड़े हत्या करने वाले ने पहले वीडियो बनाया, फिर खुलेआम उसे मार डाला, और मारने के बाद भी वीडियो बनाकर स्वीकार किया और जेल चला गया। और आज वह फिर से बाहर आ गया है।
ऐसे समय में आतंकवादियों को ज़िंदा पकड़ने और फिर सालों तक अदालतों में घसीटने से बेहतर है कि उन्हें सीधे समाप्त किया जाए।
वरना जनता को सिर्फ एक फेक नैरेटिव में उलझाकर रखा जाता है।

असल में, अपनी कायरता और झूठी क्रेडिबिलिटी को छुपाने के लिए ही राजनीतिक लोग जांच आयोग और SIT जैसी संस्थाओं का गठन करते हैं।
हर बार जब कोई बड़ा सुरक्षा चूक (security failure) होती है, आप देखेंगे कि सबसे पहले कोई नेता वहां पहुंचता है, मृतक के परिवार को सहानुभूति दिखाता है और उसी निकम्मे विभाग के किसी अधिकारी को पुरस्कार दे देता है।
उसे मरे हुए पुलिस या सेना के जवान से कोई मतलब नहीं होता — उसका मकसद सिर्फ जनता के गुस्से को भटकाना और खुद को झूठे गर्व और महिमा में दिखाना होता है।

किसी भी सुरक्षा चूक के बाद कभी ये चर्चा नहीं होती कि गलती कहां हुई, किसकी वजह से हुई और आगे इसे रोकने के लिए क्या किया जाएगा।
क्योंकि इनकी नजरों में यह सब ‘नेगेटिव चर्चा’ होती है।
ये लोग कुछ भी न करके भी महापुरुष बनना चाहते हैं, और जनता को झूठे मोटिवेशन और अज्ञान के गर्व में जीने के लिए तैयार करते हैं।

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