विचारधारा और कार्यनीति का महत्व: एक विश्लेषण
आज की दुनिया में विचारधारा और उसे आगे बढ़ाने की कार्यनीति का महत्व अतुलनीय है। चाहे वह गलत दिशा में कार्यरत समूह हों या किसी सकारात्मक लक्ष्य के लिए संघर्ष कर रहे संगठन, उनकी सफलता उनकी विचारधारा की गहराई और कार्यनीति की मजबूती पर निर्भर करती है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण कट्टरपंथी विचारधारा वाले संगठन हैं, जो अपने उद्देश्य को पाने के लिए न केवल विचारों का प्रचार करते हैं, बल्कि अपने कार्य को प्रभावी बनाने के लिए हथियारों और रणनीतिक ढांचे का भी सहारा लेते हैं।
गलत दिशा में कार्यरत संगठन से सीखने की आवश्यकता
जहां तक जिहादी समूहों का सवाल है, उनके विचारों और उद्देश्यों का हर कोई विरोध करता है। उनकी विचारधारा मानवता और शांति के विपरीत है। लेकिन उनकी कार्यप्रणाली और रणनीति का विश्लेषण हमें सिखा सकता है कि किस तरह अपने लक्ष्यों के लिए समर्पण और दीर्घकालिक योजना बनाई जाती है। जिहादी अपने विचारों को धरातल पर लागू करने के लिए विचारधारा और हथियार दोनों का सहारा लेते हैं। यह रणनीतिक सोच हमें सिखाती है कि एक मजबूत और संगठित ढांचा कैसे तैयार किया जा सकता है।
वर्तमान उदाहरण: बांग्लादेश की रणनीति
बांग्लादेश में जिहादी खुलेआम यह स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि बंगाल, बिहार और ओडिशा उनके हिस्से हैं और वे इसे लेकर रहेंगे। यह एक गंभीर चुनौती है। जहां हमारे राष्ट्रवादी इसे महज एक मूर्खतापूर्ण विचार समझकर नजरअंदाज कर रहे हैं, वहीं जिहादी इसे अगली दो पीढ़ियों के लिए एक स्थापित सत्य बनाने में जुटे हुए हैं।
अगले 40 वर्षों में, उनकी यह विचारधारा बंगाल की नई पीढ़ियों के दिमाग में गहराई तक स्थापित हो जाएगी कि ये क्षेत्र वास्तव में उनके हैं और उन्हें वापस लेना उनका अधिकार है।
हिंदू समाज और उसकी कमजोरियां
हमारे समाज में ऐसे कई लोग हैं जो इन खतरों को समझने में असमर्थ हैं।
राजनीतिक नेतृत्व की निर्भरता: लोग सोचते हैं कि मोदी या कोई अन्य नेता हर समस्या का समाधान करेंगे। परंतु यह मानसिकता कमजोर है। नेतृत्व को केवल योजनाएं बनाने और मार्गदर्शन देने की जिम्मेदारी होनी चाहिए, जबकि समाज और योद्धाओं को कार्यान्वयन का बीड़ा उठाना चाहिए।
सेना की सीमाएं: हमारी सेना में अद्भुत योद्धा हैं, लेकिन वे भी केवल राजनीतिक आदेशों तक सीमित हैं। वास्तविक लड़ाई योद्धा लड़ते हैं, न कि वे लोग जो केवल तनख्वाह और पेंशन पर निर्भर हैं।
समाज का निष्क्रिय समर्थन: हमारे समाज में ऐसे लोग हैं जो केवल भाषण देने या अति उत्साही होकर योजनाओं की बातें करते हैं। वे न तो जमीनी स्तर पर सक्रिय होते हैं और न ही कार्य को अंजाम देते हैं।
वर्तमान समय की सामाजिक प्रवृत्ति
मैंने देखा है कि 2014 के बाद से अचानक ही बहुत से लोग राष्ट्र और धर्म के बारे में विचार करने लगे हैं। लेकिन उनसे बात करते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक नया रुझान है। ये लोग अपने जीवन के पहले 30-35 साल कुछ भी नहीं करते, और अचानक किसी क्षेत्र में प्रवेश कर 4-5 साल में खुद को विशेषज्ञ मानने लगते हैं।
2014 से पहले कई लोग ऐसे थे जिनके लिए भारत का कोई महत्व नहीं था और भारत का इतिहास उनके लिए कुछ भी नहीं था। वे पूरी तरह से नकारात्मक और निराशावादी थे। लेकिन अब जो नए लोग आ रहे हैं, वे 100% अति-प्रेरित हैं और मानते हैं कि भारत और भारत का इतिहास ही सर्वश्रेष्ठ है। उनके लिए बाकी सभी देश और समाज तुच्छ हैं। यह अत्यधिक अतिरेक भी नुकसानदायक है।
इस प्रकार, जो लोग पहले भी राष्ट्र और धर्म को नुकसान पहुंचा रहे थे, वे अब अति-प्रेरित और कार्यहीन होकर भी नुकसान ही कर रहे हैं। इनके लिए वास्तविकता का कोई महत्व नहीं है। अतिसार्वत्र वर्जयते (अति हर चीज की हानिकारक होती है) इन पर पूरी तरह फिट बैठता है।
समाधान: एक सशक्त विचारधारा और संगठन
यथार्थवादी दृष्टिकोण: किसी भी समस्या का समाधान अति उत्साह या निराशा से नहीं होता। हमें एक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना होगा।
दीर्घकालिक रणनीति: जिहादी समूहों की तरह हमें भी 40-50 वर्षों की दीर्घकालिक योजना बनानी होगी। विचारों को स्थापित करने और समाज में एक मजबूत ढांचा तैयार करने पर ध्यान देना चाहिए।
युवा पीढ़ी को शिक्षित करना: नई पीढ़ी को सही इतिहास और संस्कृति की शिक्षा देना आवश्यक है। हमें सुनिश्चित करना होगा कि वे अपनी जड़ों से जुड़े रहें और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझें।
संगठन और कार्य: समाज को संगठित करना और उसे कार्य में लगाना बेहद जरूरी है। केवल भाषण देने या योजनाएं बनाने से कुछ नहीं होगा। जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन होना चाहिए।
निष्कर्ष
कट्टरपंथी विचारधारा और गलत दिशा में कार्यरत संगठन हमारे समाज के लिए गंभीर खतरा हैं। लेकिन उनके ढांचे और कार्यनीति का विश्लेषण करके, हम अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए प्रभावी रणनीति बना सकते हैं।
हमें यह समझना होगा कि केवल सेना, नेता या राजनीतिक प्रणाली पर निर्भर रहकर हम कुछ हासिल नहीं कर सकते। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। एक संगठित, शिक्षित और जागरूक समाज ही किसी भी चुनौती का सामना कर सकता है।
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