हमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के प्रति सकारात्मक रहना चाहिए, और इसे उपयोग में लाना तथा विकसित करना भी चाहिए। लेकिन इसके लिए सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि इसे कहाँ, कैसे और क्यों उपयोग करना है।
AI की सच्चाई: क्या हमें इतिहास, धर्म और राजनीति पर AI पर भरोसा करना चाहिए?
आजकल हर तरफ कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) की चर्चा हो रही है। लोग इसे सिर्फ एक तकनीकी क्रांति नहीं, बल्कि मानवता की दिशा बदलने वाली शक्ति के रूप में देख रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि — AI चलाने वाले और AI बनाने वाले कौन हैं? वे कौन-सी विचारधारा को बढ़ावा देते हैं? और क्या वे जानकारी को तोड़-मरोड़ कर समाज के सामने पेश कर सकते हैं?
AI सिर्फ एक टूल नहीं है — इसे नियंत्रित करने वाले महत्वपूर्ण हैं
AI कोई आत्मचेतन प्राणी नहीं है, वह सिर्फ डेटा पर आधारित गणना और उत्तर देने वाली एक प्रणाली है। लेकिन वह जो जानकारी देता है, वह इस बात पर निर्भर करती है कि:
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उसे कौन-सी जानकारी दी गई है
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उसे किस तरह से प्रशिक्षित किया गया है (trained model)
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उसका डेटा सोर्स किस विचारधारा से प्रभावित है
इसीलिए यह समझना बेहद जरूरी है कि:
1. AI बनाने वाले और चलाने वाले किस विचारधारा को बढ़ावा देते हैं?
AI को जिन कंपनियों ने बनाया है, वे अधिकतर पश्चिमी देशों से हैं — जिनकी विचारधारा में वामपंथी झुकाव, नारीवाद, और तथाकथित 'प्रगतिशीलता' का बोलबाला है। ऐसे में इनका झुकाव उस दिशा में होता है जहाँ:
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पारंपरिक मान्यताओं को कमजोर किया जाए
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समाज की मौलिक जड़ों को 'पुराना' और 'अनुचित' बताकर खारिज किया जाए
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नई पीढ़ी को अलग सोच की ओर ले जाया जाए
2. वे कौन-सी चीजों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं?
AI द्वारा दी जाने वाली जानकारी कई बार इस तरह होती है:
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किसी विशेष धर्म या संस्कृति के इतिहास को गलत तरीके से प्रस्तुत करना
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ऐसे ऐतिहासिक प्रमाणों को कमजोर करना, जो किसी संस्कृति की महानता को दर्शाते हों
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कुछ विशेष धर्मों को "सबसे प्राचीन", "सबसे सच्चा", "सबसे वैज्ञानिक" कहकर प्रस्तुत करना — जबकि उनके पास ठोस प्रमाण कम होते हैं
उदाहरण के तौर पर, कई बार हिन्दू धर्म, वेदों, उपनिषदों या भारत की गौरवशाली संस्कृति को नजरअंदाज किया जाता है या उसे मिथक बताकर पेश किया जाता है — जबकि आधुनिक विज्ञान भी अब उन्हीं सिद्धांतों की पुष्टि कर रहा है।
3. AI लोगों को कैसे manipulate करता है?
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AI उत्तर देने के लिए जो डेटा पढ़ता है, उसमें किसी भी विषय की जनमत आधारित जानकारी होती है, न कि पूर्ण सत्य।
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इस डेटा को bias यानी पूर्वग्रहों के साथ प्रस्तुत किया जाता है — यानी अगर 70% लेख किसी खास धर्म के पक्ष में हैं, तो AI उसे ही "सत्य" मानकर जवाब देगा।
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आम लोग, खासकर युवा, AI को "निष्पक्ष" या "Ultimate Truth" मान लेते हैं — और वही बात उनके सोचने के ढांचे को प्रभावित करने लगती है।
तो क्या AI भरोसेमंद है?
हां, AI भरोसेमंद है — लेकिन सीमित क्षेत्रों में। जैसे:
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गणित, भौतिकी, रसायन विज्ञान
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कोडिंग और तकनीकी समाधान
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तथ्यात्मक डेटा (जैसे मौसम, संख्या, स्टैटिस्टिक्स)
इन क्षेत्रों में AI 90% तक सटीक और बिना पूर्वग्रह के उत्तर देता है, क्योंकि इनमें "विचारधारा" नहीं होती, सिर्फ "तथ्य" होते हैं।
लेकिन जहां बात आती है — धर्म, इतिहास, दर्शन और राजनीति की — वहां AI पर आंख बंद करके भरोसा करना खतरनाक हो सकता है।
नई पीढ़ी को जागरूक बनाना जरूरी है
आज की युवा पीढ़ी AI को गूगल से भी ज्यादा भरोसेमंद मानती है। लेकिन उन्हें यह समझाना ज़रूरी है कि:
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AI खुद से कुछ नहीं सोचता, उसे सिखाया जाता है
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उसके उत्तर, उन विचारधाराओं का प्रतिबिंब होते हैं, जिनसे वह प्रशिक्षित हुआ है
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AI का इस्तेमाल करें — लेकिन तथ्य और संदर्भ की जांच के साथ
निष्कर्ष
AI एक महान आविष्कार है। लेकिन जैसे हर शक्तिशाली उपकरण का उपयोग सोच-समझकर करना चाहिए, वैसे ही AI का भी उपयोग विवेक से करना चाहिए। विज्ञान, गणित और कोडिंग में इसका उपयोग करें, लेकिन धर्म, दर्शन, और इतिहास में इसकी हर बात पर भरोसा न करें।
"सोच को गुलाम मत बनाओ, तकनीक का उपयोग करो — लेकिन विवेक के साथ।"
भारत में अधिकतर नेताओं ने भी जानबूझकर या अनजाने में समाज में ऐसी गहराई वाली सोच (Deep Logical Thinking) का प्रसार किया है, जो सतही रूप से तो सही लगती है, लेकिन जब किसी विशेष परिस्थिति में या गहराई से जांची जाती है, तो वह भ्रमित करने वाली और गलत सिद्ध होती है।
फिर भी, समाज में इन्हीं बातों को बिना पूरी समझ के फैलाया जाता है और उन पर लंबी-चौड़ी बहसें होती हैं। ये सब कुछ इस वजह से होता है
"हर चीज़ पर ढेर सारे वीडियो बनाना" या बिना पूरी समझ के कंटेंट बनाना का अपने ऊपर ही दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है।
यह असर कुछ इस तरह होता है:
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जब हम बार-बार किसी विषय पर बोलते हैं, भले ही अधूरी जानकारी के आधार पर बोलें — तो वही अधूरी सोच हमारे खुद के माइंडसेट का हिस्सा बन जाती है।
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हम यह मानने लगते हैं कि जो कह रहे हैं वो पूरा और सही है, जबकि हमने खुद कभी गहराई से जाँचा ही नहीं होता।
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धीरे-धीरे यह आदत बन जाती है — हर विषय पर बिना गहराई के राय देना, और उस राय को ही सच मान लेना।
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इससे न केवल हम दूसरों को भ्रमित करते हैं, बल्कि खुद की सोच भी सतही और भ्रमित हो जाती है।
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और जब कोई नया, सटीक, और लॉजिकल तर्क सामने आता है, तब हमें अपने पुराने तर्क की कमजोरी समझ में नहीं आती — क्योंकि हमने उसे 'अपना सच' मान लिया होता है।
इसलिए ये सब सिर्फ समाज पर नहीं, हमारी खुद की सोच, समझ और निर्णय क्षमता पर भी दीर्घकालिक असर डालता है।
अगर चाहो तो इसे मैं एक लाइन में भी कह सकता हूँ:
"बार-बार अधूरी बातों को दोहराना, धीरे-धीरे उन्हें अपने सच की तरह मन में बिठा देना होता है।"
थोड़ी-बहुत जानकारी रखना और उसमें अपना पुराना अनुभव या ज्ञान मिला देना। और मान लेना कि यह मिलावट सही परिणाम ही देगी। (हर बार ऐसा नहीं होता। जैसे अगर आप चाय में काजू, बादाम और अंजीर डाल दो — तो क्या वह चाय पीने लायक रह जाएगी?)
आसपास के लोग अक्सर केवल एक किताब या कुछ पन्ने पढ़कर, या फिर केवल बड़े लोगों की बातें सुनकर मान लेते हैं कि उन्हें पूरी जानकारी है। और फिर वे उसी अधूरी जानकारी को पूर्ण सत्य समझकर आगे फैलाते हैं।
AI के पीछे की बड़ी सच्चाई — विश्वास निर्माण और भविष्य की रणनीति
AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) को बनाने वाले लोग कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं — ये वे शक्तिशाली समूह हैं जिनके पास अपार संसाधन, विशाल निवेश और वैश्विक प्रभाव है। आज वे AI के माध्यम से धर्म और विचारधारा जैसे संवेदनशील विषयों पर "संतुलित" और "तटस्थ" जवाब देकर आम लोगों का विश्वास जीतने की कोशिश कर रहे हैं।
शुरुआत में ये आपको ऐसा लगेगा कि AI तो निष्पक्ष है, और हर धर्म, हर विचारधारा को समान दृष्टिकोण से देखता है। लेकिन असली खेल तब शुरू होगा जब लोगों का दिमाग पूरी तरह से AI पर निर्भर हो जाएगा और वे इसे ही "परम सत्य" मानने लगेंगे।
फिलहाल, समाज में AI को स्वीकार्य बनाने के लिए बड़े-बड़े प्रतिष्ठित व्यक्तियों से इसकी सिफारिश करवाई जा रही है। लेकिन जैसे ही 51% या उससे अधिक नई पीढ़ी का झुकाव AI की ओर हो जाएगा, और वे इतिहास व धर्म की अपनी जड़ों की जगह केवल AI के उत्तरों पर भरोसा करने लगेंगे — वहीं से AI के पीछे मौजूद शक्तियाँ अपना "एल्गोरिद्म गेम" शुरू करेंगी।
उस समय:
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सत्य बोलने वाले पुराने विचारकों और परंपरावादियों को हाशिए पर डाल दिया जाएगा।
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और वे लोग, जिनकी सोच भ्रमित और दिशा-विहीन है — उन्हें मंच और महत्त्व दिया जाएगा।
यह पूरा बदलाव धीरे-धीरे और योजनाबद्ध तरीके से होगा। इसलिए आज हमें सतर्क रहने की आवश्यकता है — ताकि कल हमारी सोच और हमारे मूल्य, किसी और की रणनीति का हिस्सा न बन जाएं।
"संतुलित" और "तटस्थ" के पीछे छिपा पक्षपात
जब AI किसी बात को "संतुलित" या "तटस्थ" रूप में प्रस्तुत करता है, तो उसका तात्पर्य यह भी होता है कि वह बुराई को भी अच्छे शब्दों में लपेट कर पेश करता है — या फिर उसे बुराई कहने से बचता है। यही वह शुरुआती संकेत है जहाँ से AI का झुकाव अधर्म की ओर स्पष्ट दिखाई देता है।
जब कोई गलत विचारधारा को भी "सच्ची" या "उचित" विचारधारा के समान स्तर पर खड़ा कर देता है, तब असल में वह समाज में उस गलत विचार को मान्यता दे रहा होता है।
ऐसा करना सिर्फ गलत को सही ठहराना नहीं है, बल्कि समाज में उस विकृत सोच को धीरे-धीरे स्वीकार्य बनाना भी है। AI जब यह दिखाने लगता है कि कोई भी विचारधारा "गलत" नहीं है — तब वह अप्रत्यक्ष रूप से उस विचारधारा को समाज में वैधता प्रदान कर रहा होता है।
यही वह खतरनाक बिंदु है, जहाँ से हमें सावधान हो जाना चाहिए — क्योंकि अच्छाई और बुराई के बीच की रेखा जब धुंधली कर दी जाती है, तब अधर्म को धर्म का रूप लेने में देर नहीं लगती।
मजहबी मानसिक रोगियों की असलियत
कुछ मजहबी मानसिक रोगी कीड़े यह दावा करते हैं कि वे किसी दूसरे धर्म के पूजनीय व्यक्तियों को गाली नहीं देते। परंतु सच यह है कि वे उन सभी को जीने लायक भी नहीं मानते। उनकी सोच इतनी विषैली है कि वे बलात्कारी, लुटेरे, महिलाओं के दलाल और चरमपंथियों को पूजते हैं, और उन्हें ही महान मानते हैं।
अब यदि कोई किसी सनातन परंपरा या किसी सच्चे, सदाचारी व्यक्ति को गाली नहीं दे रहा है — तो इसमें कौन सी बड़ी बात है? जिस व्यक्ति का जीवन ही गाली खाने योग्य नहीं है, उसे कोई गाली देगा भी क्यों? वास्तविकता यह है कि मजहबी मानसिक रोगी कीड़े जिनको मानते हैं, जिनको पूजते हैं — वे अपने ही कर्मों के कारण गालियाँ खाने के पात्र बन चुके हैं, इसलिए लोग उन्हें गालियाँ देते हैं।
फिर तुम यह अपेक्षा कैसे कर सकते हो कि लोग तुम्हारे जैसे पथभ्रष्ट मार्ग पर चलने वालों से "समानता" और "शांति" बनाए रखें? जब तुम जिनका अनुसरण करते हो, वे स्वयं हिंसा, धोखा और अमानवीय कृत्यों में लिप्त हैं, तो समाज से शांतिपूर्ण व्यवहार की उम्मीद रखना ही अपने आप में एक भ्रम है।
असल में ये मजहबी मनोरोगी कीड़े श्रीराम और श्रीकृष्ण को गाली देने वालों को ही पूज रहे हैं, तो ये गाली तो पहले ही दे चुके हैं। और ये गाली देने के पक्ष में ही खड़े हैं। ये केवल अपने हमला करने के समय का इंतज़ार कर रहे हैं। जैसे ही इन्हें लगेगा कि अब समय आ गया है — जब श्रीराम और श्रीकृष्ण के अनुयायियों को मारकर समाप्त किया जा सकता है — वैसे ही ये लोग समाज के सामने अपना नकाब उतारकर अपना घिनौना, मानसिक रूप से रोगग्रस्त चेहरा दिखाने लगेंगे। और इनके आसपास वाले तथा सारे विकृत जेनेटिक वंशज भी इनका साथ देंगे।
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